जो लोग अपने परिवार से प्रेम नहीं कर सकते, वे भगवान की भक्ति भी नहीं कर पाते हैं

कुछ लोग परिवार के लोगों को छोड़कर भगवान की भक्ति करते हैं, लेकिन ऐसी पूजा-पाठ से कोई लाभ नहीं होता है। इस संबंध में एक लोक कथा प्रचलित है। कथा के अनुसार पुराने समय में एक व्यक्ति अपने घर-परिवार में होने वाले वाद-विवाद से बहुत दुखी था। उसने एक दिन सोचा कि उसे संन्यास ले लेना चाहिए।


दुखी व्यक्ति एक संत के पास पहुंचा और संत से बोला कि गुरुजी मुझे आपका शिष्य बना लें। मैं सब कुछ छोड़कर भगवान की भक्ति करना चाहता हूं। संत ने उससे पूछा कि पहले तुम ये बताओं कि क्या तुम्हें अपने घर में किसी से प्रेम है?


व्यक्ति ने कहा कि नहीं, मैं अपने परिवार में किसी से प्रेम नहीं करता। संत ने कहा कि क्या तुम्हें अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी और बच्चों में से किसी से भी लगाव नहीं है।


व्यक्ति ने संत को जवाब दिया कि गुरुजी ये पूरी दुनिया स्वार्थी है। मैं अपने घर-परिवार में किसी से भी स्नेह नहीं रखता। मुझे किसी से लगाव नहीं है, इसीलिए मैं सब कुछ छोड़कर संन्यास लेना चाहता हूं।


संत ने कहा कि भाई तुम मुझे क्षमा करो। मैं तुम्हें शिष्य नहीं बना सकता, मैं तुम्हारे अशांत मन को शांत नहीं कर सकता हूं। ये सुनकर व्यक्ति हैरान था।


संत बोले कि भाई अगर तुम्हें अपने परिवार से थोड़ा भी स्नेह होता तो मैं उसे और बढ़ा सकता था, अगर तुम अपने माता-पिता से प्रेम करते तो मैं इस प्रेम को बढ़ाकर तुम्हें भगवान की भक्ति में लगा सकता था, लेकिन तुम्हारा मन बहुत कठोर है। एक छोटा सा बीज ही विशाल वृक्ष बनता है, लेकिन तुम्हारे मन में कोई भाव है ही नहीं। मैं किसी पत्थर से पानी का झरना कैसे बहा सकता हूं।


प्रसंग की सीख


इस प्रसंग की सीख यह है कि जो लोग अपने परिवार से प्रेम करते हैं, माता-पिता का सम्मान करते हैं, वे लोग ही भगवान की भक्ति पूरी एकाग्रता से कर पाते हैं।


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